1) केशव , कहि न जाइ का कहिये
इस कविता में कवि एक अद्भुत रचना के बारे में बात कर रहे हैं, जिसे समझना बहुत कठिन है।
- केशव , कहि न जाइ का कहिये । – केशव (कृष्ण) से कहते हैं कि इस विचित्र रचना का वर्णन करना मुश्किल है।
- देखत तव रचना विचित्र अति ,समुझि मनहिमन रहिये । – ये रचना इतनी विचित्र है कि इसे देखकर मन में ही सोचना पड़ता है।
- शून्य भीति पर चित्र ,रंग नहि तनु बिनु लिखा चितेरे । – शून्य (खाली) दीवार पर चित्र उकेरा गया है, बिना रंग और बिना शरीर के।
- धोये मिटे न मरै भीति, दुख पाइय इति तनु हेरे। – इसे धोकर मिटाया नहीं जा सकता, शरीर को देखकर दुख होता है।
- रविकर नीर बसै अति दारुन ,मकर रुप तेहि माहीं । – सूर्य की किरणें पानी में अत्यधिक कठोर होती हैं, जैसे मगरमच्छ का रूप उसमें हो।
- बदन हीन सो ग्रसै चराचर ,पान करन जे जाहीं । – बिना मुख वाला जीव समस्त संसार को ग्रस लेता है, जो भी उसके पास आता है।
- कोउ कह सत्य ,झूठ कहे कोउ जुगल प्रबल कोउ मानै । – कोई इसे सत्य मानता है, कोई झूठ, और कोई इसकी शक्ति को मानता है।
- तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम , सो आपुन पहिचानै । – तुलसीदास कहते हैं कि तीनों भ्रम छोड़कर स्वयं को पहचानो।
इस कविता में जीवन की जटिलताओं और अदृश्य शक्तियों का वर्णन किया गया है। इसे समझने के लिए गहरे विचार की आवश्यकता है।
2) सुन मन मूढ सिखावन मेरो
इस कविता में तुलसीदास जी ने मन को संबोधित करते हुए जीवन की सच्चाइयों और भगवान राम की भक्ति का महत्व बताया है।
- सुन मन मूढ सिखावन मेरो: यहाँ कवि मन को मूढ (मूर्ख) कहकर संबोधित कर रहा है और उसे सिखावन (सिख) देने की बात कर रहा है।
- हरिपद विमुख लह्यो न काहू सुख, सठ समुझ सबेरो: जो व्यक्ति भगवान के चरणों से विमुख होता है, उसे कभी सुख नहीं मिलता। समझदार लोग इस बात को जल्दी ही समझ जाते हैं।
- बिछुरे ससि रबि मन नैननि तें, पावत दुख बहुतेरो: जैसे चंद्रमा और सूर्य बिछड़ने पर दुखी होते हैं, वैसे ही मन और आँखें भी बिछड़ने पर दुखी होती हैं।
- भ्रमर स्यमित निसि दिवस गगन मँह, तहँ रिपु राहु बडेरो: दिन और रात के आकाश में भ्रमर (भ्रमित) होना और वहाँ राहु जैसे शत्रु का बड़ा होना।
- जद्यपि अति पुनीत सुरसरिता, तिहुँ पुर सुजस घनेरो: यद्यपि गंगा नदी जैसी पवित्र नदी है, जिसकी प्रशंसा तीनों लोकों में है।
- तजे चरन अजहूँ न मिट नित, बहिबो ताहू केरो: उसके चरणों को तजने (त्यागने) पर भी उसकी धारा (प्रवाह) निरंतर बहती रहती है और मिटती नहीं।
- छूटै न बिपति भजे बिन रघुपति, स्त्रुति सन्देहु निबेरो: रघुपति (भगवान राम) की भक्ति किए बिना विपत्तियाँ नहीं छूटतीं, इसका कोई संदेह नहीं है।
3) हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों
इस कविता में तुलसीदास प्रभु राम से अनुग्रह की भावना व्यक्त कर रहे हैं। आइए इसे विस्तार से समझें:
हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों।साधन-नाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों॥१॥
- तुलसीदास कहते हैं कि हे हरि, आपने मुझ पर बहुत अनुग्रह किया है। आपने मुझे वह साधन और नाम (भक्तों के लिए दुर्लभ) कृपा करके प्रदान किया है।
कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार।तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार॥२॥
- भले ही करोड़ों मुख हों, प्रभु के एक-एक उपकार को कह पाना संभव नहीं है। फिर भी, हे नाथ, मैं आपसे एक और चीज माँगता हूँ, कृपया इसे प्रदान करें।
बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक।ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक॥३॥
- विषयों के जल में मन-रूपी मछली एक पल के लिए भी भिन्न नहीं हो सकती। इस कारण मैं अनेक जन्मों की बहुत कष्टकारी विपत्तियों को सहता हूँ।
कृपा डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु चारो।एहि बिधि बेगि हरहु मेरो दुख कौतुक राम तिहारो॥४॥
- कृपा रूपी डोरी, वंशी, चरण और अंकुश रूपी प्रेम के चारों साधनों द्वारा हे राम, मेरे दुख को शीघ्रता से दूर कर दीजिए।
हैं स्त्रुति बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोरै।तुलसीदास यहि जीव मोह रजु, जोइ बाँध्यो सोइ छोरै॥५॥
- स्त्रुति (शास्त्र) में वर्णित सभी उपाय और सुर (देवता) की प्रार्थनाओं के बावजूद, तुलसीदास कहते हैं कि इस जीव को मोह रूपी रस्सी से बांधने वाला वही है जो इसे छोड़ सकता है।
कविता में तुलसीदास प्रभु राम से करुणा और दुखों के निवारण की याचना कर रहे हैं, जिसमें उन्हें अपने जीवन के मोह-माया से मुक्त करने की प्रार्थना भी शामिल है। यह कविता भक्ति और समर्पण की एक गहरी भावना को व्यक्त करती है।